कुम्हलाई कलम बढ़ती है सहम सहम,
कागजों को देख लेती है मुंह फेर,
फिर गिराती है घूंघट लाज का और मांगती है स्याही,
दवात नहीं पड़ता काफी, भरा जाता है मर्तबान,
और शब्द गढ़ लेते हैं ख़ुद को छान-छान.
चायकॉपी
ज़िन्दगी: चाय की एक चुस्की
Saturday, September 05, 2009
गुमशुदा ख़बर की तलाश जारी है.
ख़बर गुम हो गई है। और किसी को मालूम नहीं कि कहाँ है. ढूँढ रहे हैं ढ़ूँढ़ने वाले, सालों से. चौराहे पे, परदे के पीछे, चाय की ग्लास में, तकिये के नीचे. हर जगह ढूँढा नहीं मिली. थाने पे रपट लिखवानी भी चाही लोगों ने. पर नहीं लिखी गई. वहाँ पहचान मांगते हैं. फोटो दिखानी होती है. जो कि है नहीं. यहीं मामला उलट गया. किसी को याद ही नहीं कैसी दिखती थी ख़बर. लंबी थी, छोटी थी, मोटी थी, कुछ याद नहीं. बस सालों से दिखी नहीं इतना पता है. कुछ बुजुर्ग बुलाये गए, तो वे कहने लगे तिरंगा फेहरा था पहली बार तो ख़बर दिखी थी हमें. क्या इतनी पुरानी थी ख़बर? बूढ़ी हो गयी थी? कहीं मर तो नहीं गयी? तभी किसी भारत के भविष्य, प्रतिभा की किसी नई उछलती किरण ने कहा- अरे टीवी ऑन कर के देखा आपने? सब एक साथ चीखे- वहीं से तो गायब है!
ख़बर गुम हो गई है। और किसी को मालूम नहीं कि कहाँ है. ढूँढ रहे हैं ढ़ूँढ़ने वाले, सालों से. चौराहे पे, परदे के पीछे, चाय की ग्लास में, तकिये के नीचे. हर जगह ढूँढा नहीं मिली. थाने पे रपट लिखवानी भी चाही लोगों ने. पर नहीं लिखी गई. वहाँ पहचान मांगते हैं. फोटो दिखानी होती है. जो कि है नहीं. यहीं मामला उलट गया. किसी को याद ही नहीं कैसी दिखती थी ख़बर. लंबी थी, छोटी थी, मोटी थी, कुछ याद नहीं. बस सालों से दिखी नहीं इतना पता है. कुछ बुजुर्ग बुलाये गए, तो वे कहने लगे तिरंगा फेहरा था पहली बार तो ख़बर दिखी थी हमें. क्या इतनी पुरानी थी ख़बर? बूढ़ी हो गयी थी? कहीं मर तो नहीं गयी? तभी किसी भारत के भविष्य, प्रतिभा की किसी नई उछलती किरण ने कहा- अरे टीवी ऑन कर के देखा आपने? सब एक साथ चीखे- वहीं से तो गायब है!
ख़बर के गुम हो जाने के बाद उसके कई हमशक्ल दिखे. नाम उन्होंने भी अपना ख़बर ही रखा था. धोखे में रखा उन्होंने कई साल सबको. किसी की बारात किसी के घर पहुँचना ब्रेकिंग न्यूज़ बनी. ख़बर कहलाई. चुटकुलों ने अपनी औकात बढ़ाई. शाम के स्नैक से हटकर प्राइम टाइम न्यूज़ के मेनू में जुड़े. कैमरा एजेंट बना. जासूसी उपन्यास गढ़े गए. कहा गया ख़बर है. आइटम गर्ल्स ख़ूब नाचे. देर रात जगाकर इंडिया का सेक्स ज्ञान बढ़ाया गया. रातों रात नए क्रिकेट एक्सपर्ट उपजे, हर चैनल पे उनकी फसल लहलहाई. इन सबों ने ख़बर होने का दवा किया. हेड्लाइन लिखने के लिए कवि सम्मेलन कराये गए. तालियाँ पिटी गईं. वाह वाही हुई. ख़बर को क्लोन करने की कोशिश हुई. आत्मा गायब रही. न्यूज़ चैनल्स पे इधर ये सब दिखा और और ख़बर ऊधर कोने में पड़ी अपनी बारी आने का इंतज़ार करती रही. रिमोट का बलात्कार करता दर्शक, बैचैन चैनल बदलता रह. पर ख़बर नहीं दिखी. दिखती कैसे गायब जो हो गई थी.
कुम्भ का मेला अभी काफी दूर था. पर भीड़ थी और शोर भी. गुम होने का अंदेशा तो था. सही निकला. कहा गया हम हिन्दी सुनने समझने वाले दर्शक इसके लायक ही नहीं. ये अनपढ़, काहिल और उत्तेजना पसंद लोग हैं. इन्हें सेक्स दिखाओ. इन्हें भूतिया कहानियाँ सुनाओ. साँपों के सुहागरात का दृश्य इन्हें पसंद है. इन्हें दिखाते रहो किस के किसके साथ प्रेम प्रसंग हैं. और पूरे २४ घंटे यही दिखाओ. ये बहरे हैं. इन्हें चिल्ला के बताओ. ख़बर को बुला के उसमें मसाला ठूँसा गया. दर्शकों को बदहज़मी हुई, पर टीआरपी की डिश और मीठी हुई. ख़बर एकाएक स्क्रोलर पे दिखने लगी. गौर से देखा तो अब वहाँ भी विज्ञापन थे. ख़बर गुम हो चुकी थी.
ख़बर का भी क्या गौरवशाली इतिहास था! सिविल सर्विसेस पास करने वाले सबसे पहले ख़बर को शुक्रिया कहते थे. ख़बर परिवार का एक सदस्य थी. आज जैसा नहीं था की पूरा परिवार बैठा हो और न्यूज़ चैनल आते ही लोग चैनल बदल दें. ख़बर की एक संस्कृति थी. बहस जगाती थी. असर कर जाती थी. जब ख़बर चलती थी तो कदम रूक जाते थे. रिमोट पे रखा हाथ भी थम जाता था. पत्रकार की कलम में तब स्याही हुआ करती थी मसाला नहीं. हम भी खुश थे उस ख़बर के साथ. फिर अचानक ख़बर के रोल को छोटा कर दिया गया. ख़बर “एक्स्ट्रा” बन गई. सौतेली हो गई. और फिर धीरे धीरे गायब हो गई. ख़बर उड़ा दी गई कि ख़बर की ज़रूरत ही नहीं है.
ख़बर के गुम होने कि ख़बर शायद इतनी पुरानी है कि ख़बर नहीं रह गई. इस गुमशुदा की तलाश भी सालों से जारी है. आपको अगर कहीं दिखे तो बताना.
Thursday, March 06, 2008
ख़ुद से जम के मारो ठट्ठा
तन्हाई से आज झगड़
रात के संग यूँ मौज लड़ा
दिन का चेहरा कुछ जाए उतर
सन्नाटा इतना छलनी हो
खून गिरे बस तितर बितर
अंधियारे को डाँट पिला
लौ की कर तू पकड़ धकड़
ले थाम कुदाली, ज़ोर चला
डर की खुद जाए आज कब्रतन्हाई से आज झगड़
रात के संग यूँ मौज लड़ा
दिन का चेहरा कुछ जाए उतर
सन्नाटा इतना छलनी हो
खून गिरे बस तितर बितर
अंधियारे को डाँट पिला
लौ की कर तू पकड़ धकड़
ले थाम कुदाली, ज़ोर चला
कोने में पड़ा वह झाड़ू पकड़
झालें ये हटें, कस ले ये कमर
अरे फाड़ गला, एक चीख़ जगा
घर की मकड़ी का डोले जिगर
Thursday, June 28, 2007
Wednesday, May 09, 2007
हौज़ खास के आम दिन
हर दिन ३० किलोमीटर आना और ३० किलोमीटर वापस जाना आसान काम नहीं है। नौकरी करता हूँ। दिल्ली में। बड़ा शहर है। बहुत बड़ा। रात को देर से वापस जाता हूँ, इसीलिये कभी कभी ऑफिस पहुँचने में देर हो जाती है। ये ३० किलोमीटर का लम्बा सफ़र तय करने में हर दिन ३ घंटे लगते हैं। डेढ़ घंटे तकरीबन आने के और उतने ही जाने के। एक ही सड़क पे हर रोज़। वही फ़्लाइओवर। वही टर्न। वही स्पीड ब्रेकर। कभी कभार तो वही ऑटो वाला। बोर हो जाता हूँ।
हर दिन ३० किलोमीटर आना और ३० किलोमीटर वापस जाना आसान काम नहीं है। नौकरी करता हूँ। दिल्ली में। बड़ा शहर है। बहुत बड़ा। रात को देर से वापस जाता हूँ, इसीलिये कभी कभी ऑफिस पहुँचने में देर हो जाती है। ये ३० किलोमीटर का लम्बा सफ़र तय करने में हर दिन ३ घंटे लगते हैं। डेढ़ घंटे तकरीबन आने के और उतने ही जाने के। एक ही सड़क पे हर रोज़। वही फ़्लाइओवर। वही टर्न। वही स्पीड ब्रेकर। कभी कभार तो वही ऑटो वाला। बोर हो जाता हूँ।
Tuesday, May 08, 2007
हर दिन कुछ पन्ने पलटता हूँ
गली में बहुत दूर टूटे फूटे ईटों के बीच चित पड़ा था एक सौ का पत्ता
लगता है चौराहे कि ठेके कि दुकान देर रात तक खुली रही
शुक्र है जब भी बात करता हूँ एक नकाब ओढ़ लेता हूँ
इस शहर में नंगी आँखें पहरा देती हैं
दूर हवा में सिहरते पत्ते से मैंने सुना था
कि चौखट लाँघ कर जो पैर निकलते हैं
काली सड़कों पर आकर वो ही पाँव धूल को तरसते हैं
गली में बहुत दूर टूटे फूटे ईटों के बीच चित पड़ा था एक सौ का पत्ता
लगता है चौराहे कि ठेके कि दुकान देर रात तक खुली रही
शुक्र है जब भी बात करता हूँ एक नकाब ओढ़ लेता हूँ
इस शहर में नंगी आँखें पहरा देती हैं
दूर हवा में सिहरते पत्ते से मैंने सुना था
कि चौखट लाँघ कर जो पैर निकलते हैं
काली सड़कों पर आकर वो ही पाँव धूल को तरसते हैं
आज कुछ तन्हा हूँ
सहम कर रहता हूँ, देख कर चलता हूँ
दिन बहुत बीते यहाँ, पर ये शहर अब भी काटता है
चुपचाप बैठा हूँ, आसमान ताकता हूँ
दोस्त गिने बहुत हैं, पर कब कोई कुछ बाँटता है
सबसे मिल लेता हूँ, पर दूर सा रहता हूँ
दिखता नहीं कोई पास, मन ख़ाक छानता है
कोने में पड़ा हूँ, भीड़ से भागता हूँ
खुद को ढूँढा नहीं, क्यों औरों को मापता है
डर सा गया हूँ, कुछ मंत्र जापता हूँ
चेहरों के रंग बदले हैं, और ये तन काँपता है.
सहम कर रहता हूँ, देख कर चलता हूँ
दिन बहुत बीते यहाँ, पर ये शहर अब भी काटता है
चुपचाप बैठा हूँ, आसमान ताकता हूँ
दोस्त गिने बहुत हैं, पर कब कोई कुछ बाँटता है
सबसे मिल लेता हूँ, पर दूर सा रहता हूँ
दिखता नहीं कोई पास, मन ख़ाक छानता है
कोने में पड़ा हूँ, भीड़ से भागता हूँ
खुद को ढूँढा नहीं, क्यों औरों को मापता है
डर सा गया हूँ, कुछ मंत्र जापता हूँ
चेहरों के रंग बदले हैं, और ये तन काँपता है.
दिन कटते रहे
खुद को धोखों का समुन्दर भेंट कर
हवा में उछाले कुछ बोलों के आस पास खेलता रहा
दुनिया चलते चलते चाँद पे पहुँची
मैं बैठा अरमान की रोटियाँ बेलता रहा
कुछ भीतर से जला-जला, सड़ा-सड़ा सा लगा
मैं अपनी आत्मा को कौड़ियों के भाव बेचता रहा
सच के पीछे भागना, उसके साथ चलना बस में ना था
झूठ को सच मान कर, खुद को झेलता रहा
समझ ना आया मुझे दुनिया का ये दस्तूर कभी
आग की बौछारें हर तरफ, मैं पानी उडेलता रहा
जिस का जब मन आया, साथ आया और चला गया
मैं रेत को मुट्ठी में बाँध कर, खींसे निपोरता रहा
तेज आँधी के साथ कल बादल मूसलाधार बरसा
मेरा मकान ढ़ह गया, मैं ईंटें बटोरता रहा
चीथड़े इंतज़ार में कि कोई आके जोड़े
कल फिर इन्सान मर गया, मैं लाशें धकेलता रहा
खुद को धोखों का समुन्दर भेंट कर
हवा में उछाले कुछ बोलों के आस पास खेलता रहा
दुनिया चलते चलते चाँद पे पहुँची
मैं बैठा अरमान की रोटियाँ बेलता रहा
कुछ भीतर से जला-जला, सड़ा-सड़ा सा लगा
मैं अपनी आत्मा को कौड़ियों के भाव बेचता रहा
सच के पीछे भागना, उसके साथ चलना बस में ना था
झूठ को सच मान कर, खुद को झेलता रहा
समझ ना आया मुझे दुनिया का ये दस्तूर कभी
आग की बौछारें हर तरफ, मैं पानी उडेलता रहा
जिस का जब मन आया, साथ आया और चला गया
मैं रेत को मुट्ठी में बाँध कर, खींसे निपोरता रहा
तेज आँधी के साथ कल बादल मूसलाधार बरसा
मेरा मकान ढ़ह गया, मैं ईंटें बटोरता रहा
चीथड़े इंतज़ार में कि कोई आके जोड़े
कल फिर इन्सान मर गया, मैं लाशें धकेलता रहा
Tuesday, January 10, 2006
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