चायकॉपी
ज़िन्दगी: चाय की एक चुस्की
Thursday, June 28, 2007
जब तक रहूँगा, खुद से लड़ूँगा
खुदा से भिड़ने का माद्दा नहीं है
रूक कर रास्ते में मुझसे कभी रूबरू हुआ तो करो
कागज़ पे लिखे इन अक्षरों को शायद समझ ना पाऊँ कभी
मुझे ज़रूरत है बस एक बात की
कि
तुम
पास
रहो
तेरे बारे में लिखना बहुत चाहती थी ये कलम
बहुत ढूँढा घर में, स्याही रखने को मर्तबान ना मिला
शहर आज इतना अजनबी क्यों है
मिलता भी है पर फासला भी रखा है
हम तो हर दिन कूदते हैं दरिया में
पानी देखता हूँ, गहराई नहीं देखता
दो आंखों के सहारे टिकी एक जिन्दगी मेरी
झपकी ना अभी तो ख़ाक हो जाऊँगा
एक दिन बीता, दो दिन बीता
बीती उम्र तमाम
तेरी याद में सूरज निकला
तेरी याद में शाम
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