Monday, May 21, 2007

किस से कहूं मैं अपने दिल की कहानी,
सुना है हर गली तेरे आशिकों से पटी है

Wednesday, May 09, 2007

हौज़ खास के आम दिन

हर दिन ३० किलोमीटर आना और ३० किलोमीटर वापस जाना आसान काम नहीं है। नौकरी करता हूँ। दिल्ली में। बड़ा शहर है। बहुत बड़ा। रात को देर से वापस जाता हूँ, इसीलिये कभी कभी ऑफिस पहुँचने में देर हो जाती है। ये ३० किलोमीटर का लम्बा सफ़र तय करने में हर दिन ३ घंटे लगते हैं। डेढ़ घंटे तकरीबन आने के और उतने ही जाने के। एक ही सड़क पे हर रोज़। वही फ़्लाइओवर। वही टर्न। वही स्पीड ब्रेकर। कभी कभार तो वही ऑटो वाला। बोर हो जाता हूँ।
कभी पास रहे, कभी दूर रहे
तुम भी कितने मजबूर रहे

बस तेरे निशाँ का पीछा किया
हम भी दिल के मजदूर रहे

दिन भर तुमको सोचा इतना
रातों को थक के चूर रहे

ख्वाबों में तुमसे बातें कि
दिल में अरमाँ भरपूर रहे

जिससे मिला तेरा चर्चा किया
तुम ही मुझमें मशहूर रहे

बिस्तर पे सिलवट पड़े अरसा हुआ
तुम मुझसे इतने दूर रहे

Tuesday, May 08, 2007

हर दिन कुछ पन्ने पलटता हूँ

गली में बहुत दूर टूटे फूटे ईटों के बीच चित पड़ा था एक सौ का पत्ता
लगता है चौराहे कि ठेके कि दुकान देर रात तक खुली रही

शुक्र है जब भी बात करता हूँ एक नकाब ओढ़ लेता हूँ
इस शहर में नंगी आँखें पहरा देती हैं

दूर हवा में सिहरते पत्ते से मैंने सुना था
कि चौखट लाँघ कर जो पैर निकलते हैं
काली सड़कों पर आकर वो ही पाँव धूल को तरसते हैं
आज कुछ तन्हा हूँ

सहम कर रहता हूँ, देख कर चलता हूँ
दिन बहुत बीते यहाँ, पर ये शहर अब भी काटता है

चुपचाप बैठा हूँ, आसमान ताकता हूँ
दोस्त गिने बहुत हैं, पर कब कोई कुछ बाँटता है

सबसे मिल लेता हूँ, पर दूर सा रहता हूँ
दिखता नहीं कोई पास, मन ख़ाक छानता है

कोने में पड़ा हूँ, भीड़ से भागता हूँ
खुद को ढूँढा नहीं, क्यों औरों को मापता है

डर सा गया हूँ, कुछ मंत्र जापता हूँ
चेहरों के रंग बदले हैं, और ये तन काँपता है.
दिन कटते रहे

खुद को धोखों का समुन्दर भेंट कर
हवा में उछाले कुछ बोलों के आस पास खेलता रहा

दुनिया चलते चलते चाँद पे पहुँची
मैं बैठा अरमान की रोटियाँ बेलता रहा

कुछ भीतर से जला-जला, सड़ा-सड़ा सा लगा
मैं अपनी आत्मा को कौड़ियों के भाव बेचता रहा

सच के पीछे भागना, उसके साथ चलना बस में ना था
झूठ को सच मान कर, खुद को झेलता रहा

समझ ना आया मुझे दुनिया का ये दस्तूर कभी
आग की बौछारें हर तरफ, मैं पानी उडेलता रहा

जिस का जब मन आया, साथ आया और चला गया
मैं रेत को मुट्ठी में बाँध कर, खींसे निपोरता रहा

तेज आँधी के साथ कल बादल मूसलाधार बरसा
मेरा मकान ढ़ह गया, मैं ईंटें बटोरता रहा

चीथड़े इंतज़ार में कि कोई आके जोड़े
कल फिर इन्सान मर गया, मैं लाशें धकेलता रहा
जब कोई आता है तो दस्तक देना दस्तूर बनता है
बेरोकटोक आवाजाही तो कातिलों का काम है