चायकॉपी
ज़िन्दगी: चाय की एक चुस्की
Saturday, September 05, 2009
कुम्हलाई
कलम
बढ़ती
है
सहम
सहम,
कागजों
को
देख
लेती
है
मुंह
फेर,
फिर
गिराती
है
घूंघट
लाज
का
और
मांगती
है
स्याही,
दवात
नहीं
पड़ता
काफी,
भरा
जाता
है
मर्तबान,
और
शब्द
गढ़
लेते
हैं
ख़ुद
को
छान-
छान.
1 comment:
Anonymous said...
great
7:37 PM
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1 comment:
great
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