दिन कटते रहे
खुद को धोखों का समुन्दर भेंट कर
हवा में उछाले कुछ बोलों के आस पास खेलता रहा
दुनिया चलते चलते चाँद पे पहुँची
मैं बैठा अरमान की रोटियाँ बेलता रहा
कुछ भीतर से जला-जला, सड़ा-सड़ा सा लगा
मैं अपनी आत्मा को कौड़ियों के भाव बेचता रहा
सच के पीछे भागना, उसके साथ चलना बस में ना था
झूठ को सच मान कर, खुद को झेलता रहा
समझ ना आया मुझे दुनिया का ये दस्तूर कभी
आग की बौछारें हर तरफ, मैं पानी उडेलता रहा
जिस का जब मन आया, साथ आया और चला गया
मैं रेत को मुट्ठी में बाँध कर, खींसे निपोरता रहा
तेज आँधी के साथ कल बादल मूसलाधार बरसा
मेरा मकान ढ़ह गया, मैं ईंटें बटोरता रहा
चीथड़े इंतज़ार में कि कोई आके जोड़े
कल फिर इन्सान मर गया, मैं लाशें धकेलता रहा
3 comments:
gud one anand..........mirrors a lot of honesty. doesn't seem just empty words, but heavy with emotions and feelings. could almost see your face wearing a sad expression.
ritu........
"दुनिया चलते चलते चाँद पे पहुँची
मैं बैठा अरमान की रोटियाँ बेलता रहा"
Shabdon me tarif nahi ho sakti is pankti ka..
Lajawaab
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