हर दिन कुछ पन्ने पलटता हूँ
गली में बहुत दूर टूटे फूटे ईटों के बीच चित पड़ा था एक सौ का पत्ता
लगता है चौराहे कि ठेके कि दुकान देर रात तक खुली रही
शुक्र है जब भी बात करता हूँ एक नकाब ओढ़ लेता हूँ
इस शहर में नंगी आँखें पहरा देती हैं
दूर हवा में सिहरते पत्ते से मैंने सुना था
कि चौखट लाँघ कर जो पैर निकलते हैं
काली सड़कों पर आकर वो ही पाँव धूल को तरसते हैं
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