Tuesday, May 08, 2007

हर दिन कुछ पन्ने पलटता हूँ

गली में बहुत दूर टूटे फूटे ईटों के बीच चित पड़ा था एक सौ का पत्ता
लगता है चौराहे कि ठेके कि दुकान देर रात तक खुली रही

शुक्र है जब भी बात करता हूँ एक नकाब ओढ़ लेता हूँ
इस शहर में नंगी आँखें पहरा देती हैं

दूर हवा में सिहरते पत्ते से मैंने सुना था
कि चौखट लाँघ कर जो पैर निकलते हैं
काली सड़कों पर आकर वो ही पाँव धूल को तरसते हैं

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